Tuesday, April 8, 2014
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Saturday, March 29, 2014
हम कब बनेंगे- गणतंत्र, स्वतंत्र और स्वाधीन देश के नागरिक?
भाषा-आन्दोलन-विचार-1
हम कब बनेंगे- गणतंत्र, स्वतंत्र और स्वाधीन देश के नागरिक?
विचार व प्रस्तुति: वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ
सामान्य दृष्टि से विचार करने पर स्वाधीन, स्वतंत्र और गणतंत्र आदि तीनों शब्द एक ही स्थिति के परिचायक-से लगते हैं; पर वास्तव में जब आप इन शब्दों की प्रकृति और व्युत्पत्ति-जन्य अर्थ पर विचार करते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि ये तीनों पर्यायवाची नहीं हैं। स्वाधीन होने में पूरी तरह स्व-आंश्रित होना होता है, वहाँ अधीनता किसी की है, तो वह ‘स्व’ की है, किसी भी दूसरी सत्ता की अधीनता वहाँ स्वीकार्य नहीं है; जबकि स्वतंत्र में अपने स्वयं के बनाये हुए तंत्र पर चलने की बात होती है, या स्वयं के द्वारा अपने तंत्र के बनाने की बात होती है, यहाँ तंत्र के बनाने से अभिप्राय- व्यवस्था के बनाने से लिया जाना चाहिए। इसीतरह गणतंत्र शब्द भी उपर्युक्त् दोनों रूपों या अर्थों से भिन्न है। गणतंत्र में गण के द्वारा गण के लिए गण के प्रतिभागी सदस्यों के द्वारा गण के प्रतिभागी सदस्यों के तंत्र को बनाने की बात है। जब तक आप गणतंत्र की इकाई हैं या जनतंत्र की इकाई हैं, तब तक आपको जनों के गण के अधीन रहना ही होगा। यदि आप ऐसा नहीं करते हैं, तो आप सही मायने में गणतंत्र के अनुयायी या गणतंत्र के सिपाही या गणतंत्र के सच्चे भागीदार या सच्चे नागरिक नहीं हैं। स्वतंत्रता में गणतंत्र से थोड़ा-और-आगे जाते हैं। वहाँ भी तंत्र के अधीन तो रहते हैं, पर वह तंत्र स्वयं के द्वारा बनाया हुआ होता है और हमें उसके अधीन रहना होता है, पर इससे भी आगे चलकर स्वाधीन स्थिति में हम पर से या किसी और से मुक्त हो चुके होते हैं और पूरी तरह ‘स्व’ के अधीन होते हैं; भले, इस ‘स्व’ के प्रतिभागी कितने ही क्यों न हों!
हमारे देश की 1947 और 1951 की आजादी ने कुछ अंशों में गणतांत्रिक या स्वतंत्र तो हमें बनाया, पर हम स्वाधीन अब तक न हो पाये, बल्कि कुछ अंशों में अब पहले से और-अधिक पराधीन हो गये। अँग्रेज चले गये या अँग्रेजों को जाने के लिए हमने विवश कर दिया, पर हम अँग्रेजियत न छोड़ पाये, बल्कि अँग्रेजियत को हमने और-अधिक आत्मसात कर लिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि अब हम पहले से और-बड़े खतरे के दौर से गुजर रहे हैं और लगातार हम अपने को, अपनी चीजों को छोड़ते और भूलते चले आ रहे हैं, जिससे अब हमारी पहचान लगभग पूरी तरह से गायब होने के कगार पर पहुँच गई है। अँग्रेजियत ने सबसे पहले अपना पहला प्रभाव हमारी संस्कृति पर आक्रमण कर डाला और हम भूल गए एक दूसरे को आदर देना, परस्पर सम्मान देना, छोटे-बड़े के अंतर को अंतर की तरह देखना, अपनी पहचान वाली वेशभूषा को पहनना, केवल अपने भोज्य को ही अपने भोजन के रूप में लेना, अपनी औषधियों को औषधि के रूप में मानना और जिसके परिणामस्वरूप हम देख रहे हैं अपने सामाजिक बंधनों का लड़खड़ाते होना, परिवार के सदस्यों का बड़ों के होते हुए भी निरन्तर चिन्ताग्रस्त रहना, बुजुर्गों का परिवार से हटकर आश्रयहीन-सी अवस्थाओ में वृद्धाश्रमों में रहना, अनजाने संबंधों में विवाह का होना और अटूट विश्वास के रिश्ते विवाह के होने के बाद भी पति-पत्नी के बीच में विश्वास का न रह पाना, आदि-आदि। ये समस्याएँ हमारे भारतीय समाज का अंग कभी नहीं थीं, पर अब हो गयी हैं, जबकि अँग्रेज आधिकारिक रूप में हमारे यहाँ से बहुत पहले चले गये। यह-सब इसलिए है कि मानसिकता या विचार की गुलामी से हम आज तक आजाद न हो पाये।
आप पूरे विश्व के आकड़ों को देखें, तो ऐसे 10 देश भी नहीं है, जिनकी मातृभाषा अँग्रेजी हो,पर अँग्रेजी को विश्वभाषा या व्यवसाय की भाषा या पढ़े-लिखे माने-जाने की भाषा हम माने बैठे हैं। भाव यह है कि हमें यदि अँग्रेजी आती है, तो हम पढ़े-लिखे माने जाते हैं, यदि अँग्रेजी नहीं आती तो हम पढ़े-लिखे नहीं, भले विषय, विद्याएँ या कलाएँ हमें कितनी ही क्यों न आती हों, -यह भारतीय समाज की कुछ अद्भुत-सी स्थिति विकसित हो गयी है और जो भीतर तक लगभग जडें जमा चुकी है़,जिसके फलस्वरूप हम भूलते या छोड़ते जा रहे हैं, अपनी ज्ञान-धाराओं, विद्याओं, कलाओं, शास्त्रों तक को और हम अपनी मातृभाषाओं के मातृभाषी होते हुए भी यह देख रहे हैं कि हमारी मातृभाषाओं की वाक्यात्मक संचरनाएँ भी या उनके प्रयोग भी अब हम लड़खड़ाते हुए से कर रहे हैं। इस सबसे हो यह रहा है कि जिन चीजों के लिए हम पहचाने जाते थे, वह पहचान हमारी संकट में पड़ जा रही है। यदि अब भी हम न चेते, तो हमारी उत्तराधिकार वाली पीढि़याँ खोयी पहचान वाली होंगी और उसकी स्थिति उस तवायफ के बेटे-जैसी होगी, जो भी उसके घर में आता है, उसमें वह अपने पिता को ढूँढने की कोशिश करता है। क्या हम चाहते हैं कि हमारी संतानें ऐसी अवस्था वाली बनें और ऐसे ही अपने-अपने पिता को ढूँढने वाली बनें। इस सबसे बचने के लिए अब सोते रहने से काम न चलेगा और युद्ध स्तर पर हमें अपनी डूबती पहचान को बचाना होगा और खोयी पहचान को पुनरुज्जीवित करना होगा व इसके साथ ही साथ हमें अपनी भारतीय मातृभाषाओं को बचाने लिए एकजुट होकर मातृभाषा-आन्दोलन चलाना होगा। इसके लिए हम आपसे प्राथमिक रूप में निम्नांकित गतिविधियों में सक्रिय भगीदारी की अपेक्षा करते हैं-
• छोटे-छोटे गाँवों से लेकर संपूर्ण राष्ट्र के स्तर पर हमें एक तंत्र खड़ा करना होगा। आपसे अनुरोध है कि यदि आप गाँवों में हैं तो गाँव में, मुहल्ले में हैं तो मुहल्ले में एक अपने तंत्र की इकाई स्थापित करते हुए क्रमशः ऊपर की ओर गाँव से बढ़कर गाँवपंचायत की ओर, ऐसे ही मुहल्ले से बढ़कर नगर की ओर चलते हुए इकाइयाँ स्थापित करते चलें।
• आप-सब जिन भारतीय भाषाओं और उनकी लिपियों में मोबाइल पर, इंटरनेट पर संदेश भेजा जाना संभव है, उन्हें अपनी-अपनी मातृभाषा में या मातृभाषा से बाहर दूसरे मातृभाषी किसी भी भारतीय को संदेश भेजना हो, तो उसे भारतीय राष्ट्रभाषा हिंदी में भेजने का संकल्प लें और उसे आज से ही भेजना प्रारंभ कर दें।
• आप घर पर, दुकान पर, कार्यालय पर सारे नामपट या विज्ञापन-पट क्षेत्र-प्रधान भारतीय भाषाओं और राष्ट्रभाषा हिंदी में बदल डालें।
• आप अपने परिचय के लिए दिये जाने वाले व अपने विवरण को प्रस्तुत करने वाले (विजटिंग कार्ड) क्षेत्रीय भाषाओं और हिंदी में ही छपवाएँ।
• बाजार से वे उत्पाद लेना बंद कर दें, जिन पर विज्ञापन अँग्रेजी में हो।
• आप बैंकों, डाकघरों आदि में अपने खातों में पहचान के दस्तखत अँग्रेजी में करना बंद करते हुए आज से ही अपनी मातृभाषा में ही करना प्रारंभ कर दें।
• आप रेलवे, बस, हवाई जहाज आदि के आरक्षण फार्म केवल क्षेत्रीय भाषाओं में ही भरें।
• आप अपने वाहनों के प्लेट पर लिखे जाने वाले नंबर क्षेत्रीय भाषाओं में ही लिखवाएँ।
• विवाह आदि के उन सामाजिक समारोहों में जाना बंद कर दें, जिनके निमंत्रण अँग्रेजी में आएँ।
• आप उन सरकारी दस्तावेजों को लेने से मना कर दें व सरकारी कार्यवाहियों में साफ कहना प्रारंभ कर दें कि हम उसी में भाग लेगें, जिनकी भाषा, राष्ट्रीय या क्षेत्रीय हो, जिससे कि हम जान सकें कि सरकार हमें क्या् निर्देश दे रही है व हमारे संबंध में क्या कार्रबाही हो रही है?
• हम परस्पर अभिवादन Good Morning, Hello, Hai, Bye Bye आदि में करना बंद कर दें। अभिवादन के अपने पारंपरिक तरीकों को पुष्ट करना प्रारंभ कर दें। बड़ों के सामने सिर झुकाना, पैर छूना लगभग भूल गये हैं। बात वहीं से प्रारंभ करना शुरू कर दें।
• हम पारंपरिक पोशाकों को फिर से सम्मान के साथ या अपनी पहचान की पोशाक मानते हुए पहनना प्रारंभ कर दें। किन्हीं विशेष या विषम परिस्थितियों में जहाँ छूट आवश्यक है, गाँव के स्तर पर अपने विकल्पों के भीतर से ही विकल्प ढूँढें।
• पारंपरिक भोज्यवस्तु को बिना किसी कारण के न छोडें और पश्चिम से आयातित भोज्य पदार्थों का परित्याग करें तथा उनके दुष्परिणाम भी अपने आस-पड़ोस में सबको बताएँ।
• अपने लोकगीतों या लोकधुनों को अपने जीवन में फिर से अपनाना माँ-बाप, चाचा-चाची, दादा-दादी,बुआ-फूफा, भइया-भाभी, ननद-नंदोई, देवर-देवरानी, बहनों-बहनोइयों, नाना-नानी, मामा-मामी, बच्चों, भाई-भतीजों, भानजों-भानजीओं, बहनोतों-बहनोतियों, नाती-पोतों, धेवतों-धेवतियों आदि के साथ प्रारंभ कर दें।
• हम संकल्प लें कि गाँव-गाँव में शत-प्रतिशत मतदान करेंगे व कराएँगे, ताकि वास्तविक जनतांत्रिक भारत की रचना हो सके।
• पंचायतों, विधानसभाओं व संसद की सभाओं में केवल भारतीय भाषाओं या राष्ट्रभाषा हिंदी में ही कार्रबाही चलने दी जाएगी, ताकि भारतीय जन-मानस यह पूरी तरह समझ सके कि इन सभाओं में उसके बारे में क्या कार्रबाही चल रही है?
• हम किसी भी तरह अँग्रेजी में हमसे बात करने वाला राजनेता स्वीकार न करेंगे।
• आप अपने अपने स्तर की तंत्रात्मक इकाई के भीतर या अधीन आम जन की जरूरतों व आकांक्षाओं का संग्रह करना प्रारंभ कर दें कि आम जन हमारे विभिन्न स्तरों के शासन-तं़त्र व शैक्षिक तंत्र से क्या अपेक्षाएँ व आकांक्षाएँ रखते हैं, ताकि उन्हें पूरा करने की योजनाएँ बनाने में पूरे राष्ट्र के हर नागरिक की भागीदारी हो सके।
• कक्षा ८ तक प्रत्येक भारतीय छात्र को व उनके अभिभावकों को चाहिये कि वह यदि हिंदी मातृभाषी है तो उसेएक अन्य भारतीय भाषा अनिवार्य रूप से व एक अन्य भारतीय भाषा ऐच्छिक रूप से सीखे और यदि हिंदी केअतिरिक्त अन्य भारतीय भाषा मातृभाषी है तो हिंदी अनिवार्य रूप से व एक अन्य भारतीय भाषा ऐच्छिक रूपसे सीखे। सरकारों को चाहिए कि वे इसके पालन कराने के लिए नियम बनाए और जो विद्यालय इसका पालनन करें, उनके विरुद्ध सख्त कार्रबाही की जाए।
• उपर्युक्त कार्य न करने की दिशा में शासन का विरोध करने की स्थिति में हमें शासन की ओर से लाठी-डंडा खाने तक के लिए भी तैयार रहना होगा।
• इसके अलावा वे सारे कार्य भी जो हमारी पहचान के लिए हमारी स्वाधीनता के लिए आवश्यक हों,उन्हें और जोड़ें।
• गाँव-गाँव घर-घर जाकर ऊपर उल्लिखित किये जाने वाले कार्यों के लिए प्रतिज्ञा-पत्र भरवाएँ और जो न किये जाने वाले काम हैं, उनके न किये जाने का संकल्प भी लें और लिवाएँ।
· वृषभ प्रसाद जैन,
बी-१/२३ सैक्टर जी, जानकीपुरम, लखनऊ-२२६०२१
दूरभाष ९४५३३२३११३
vrashabh.jain@gmail.com
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